याद
कोई शाम हो ,
जो ढल रही हो युहीं अनमने ढंग से ,
लालिमाओं को दामन में
समेटे जा रही हो ,
परिंदों कि न मिटने
वाली थकान लिए ,
क्या यहीं अस्तिव है
तुम्हारा तो बेहतर है|
कोई उड़ान हो ,
जो परों को पसारे जा
रही हो ,
असीमित आसमान को बौना
करने,
कि बादलों को छूने कि
ख्वाहिश में,
यहीं पहचान है
तुम्हारा तो बेहतर है |
कोई निशान हो ,
जो मिटती नहीं हो
,लकीर सी उभर आई हो ,
हृदय के ऊपर ,मैंने
कोशिश कि मिटाने कि ,
मगर मिटी नहीं तुम
,धुंधला गयी हो मगर ,
यहीं याद है तुम्हारी तो बेहतर है ||
@सर्वाधिकार सुरक्षित
मयंक आर्यन (कैमूर,बिहार)