Friday, March 30, 2018

गज़ल
इस बाग़ के ये गुल भी, मशहूर हो रहे हैं,
 डाली से टूटकर के, अब दूर हो रहे हैं,

इक टीस उठ रही है, तेरे बिछड़ जाने से,
तेरे इश्क़ के हैं मारे, मजबूर हो रहे हैं,

अब टूटने लगी है, सांसो की डोर अपनी,
सब फैसले तुम्हारे, अब मंजूर हो रहे हैं,

हौसले कुछ यूँ कि आसमां को हरा देंगे,
परिंदे भी अपनी उड़ान पे मगरूर हो रहे हैं||

यहीं याद है तुम्हारी तो बेहतर है

कोई शाम हो,
जो ढल रही हो  युहीं अनमने ढंग से ,
लालिमाओं को दामन में समेटे जा रही हो ,
परिंदों कि न मिटने वाली थकान लिए ,
क्या यहीं अस्तिव है तुम्हारा तो बेहतर है|

कोई उड़ान हो ,
जो परों को पसारे जा रही हो ,
असीमित आसमान को बौना करने,
कि बादलों को छूने कि ख्वाहिश में,
यहीं पहचान है तुम्हारा तो बेहतर है |

कोई निशान हो ,
जो मिटती नहीं हो ,लकीर सी उभर आई हो ,
हृदय के ऊपर ,मैंने कोशिश कि मिटाने कि ,
मगर मिटी नहीं तुम ,धुंधला गयी हो मगर ,
यहीं याद है तुम्हारी तो बेहतर है ||